अपने बारे में कुछ लिखने का
प्रयास कर रही हूँ ..... यूं तो यह कह पाना मुश्किल है की मेरी पहचान क्या है, क्योंकि यही वो मुकाम है जिसे पाने के लिए या फिर कहूँ की बनाने के लिए
इंसान जिंदगी भर जद्दोजहद करता है ....मैं भी कर रही हूँ....... हर बार जो बड़े
गर्व के साथ मैं लोगों से कहती हूँ की मेरा नाम अंजलि पंडित है, वो भी मेरा नहीं है..... माँ- बाप की देन है , हाँ
ये बात सच है की पाँचवी कक्षा में मैंने ही जिद की थी अपना यह नाम रखने की, और उसके बाद से शुरू हो गयी थी अंजलि पंडित को एक पहचान देने की मेरी
मुहिम..... मुहिम इसलिए कह रही हूँ क्योंकि कुछ भी आसानी से नहीं पा सकी आज तक , खुद कुंवा खोदकर पानी पीने जैसी स्थिति हमेशा रही....... फिर भी इस बात
का फख्र मुझे हमेशा रहता है कि जो मैं चाहती हूँ वो मैं हासिल कर लेती हूँ.....
जज़्बे की कमी नहीं है मुझमे..... खुद के प्रति ईमानदार हूँ और यही आदत कभी-कभी
मेरे रास्ते का रोड़ा भी बन जाती है.... अगर मैं मेरी ही बनाई हुई मर्यादा की
लकीरों को पार करूँ... तो ज्यादा नाम और शोहरत मिल सकता है .... पर क्या कहूँ उस
भगवान को जिसने मेरे अंदर ऐसा दिल लगाकर रख दिया है जिसे अपनी ही शर्तों पर जीना मंजूर है ,जो अपने बारे में कम सोचता है
और दूसरों के बारे में अधिक , कई बार इस बात को लेकर घरवालों
से शिकायत भी सुननी पड़ती है, वो लोग कहते हैं कि तुम अपने बारे में सोचों, तुमने समाज का ठेका नहीं ले रखा है .... ये बात तो सच है कि मैं समाज की ठेकेदार नहीं हूँ, पर इंसान तो हूँ न..... और मेरी इंसानियत मुझे लकीर की फकीर बनने की
इजाजत नहीं देती.... गलत होते देखकर आँख बंद करने की इजाजत नहीं देती..... जानवरों
की तरह केवल अपना ही पेट भरने की इजाजत नहीं देती..... मैं चाहती हूँ की मैं
मनुष्यता का धर्म निभाऊँ, इसी में मुझे संतुष्टि मिलती है और
इसके लिए मैं शुक्रगुजार हूँ उस ईश्वर की जिसने मुझे ऐसी सोंच दी । कई बार लोग
मेरी सोंच , मेरे कार्य और मेरी उम्र के बीच में तालमेल
बैठने में उलझ जाते है, सोंचते है कि मेरी सोंच मेरी उम्र कि
सीमा से परे है , पर मुझे ऐसा नहीं लगता क्योंकि जब मन में कुछ करने का प्रण कर लिया जाता है तब
कोई भी बंदिश आड़े नहीं आती..... ये भाषण नहीं मेरा जिंदगी के प्रति नज़रिया
है...वक़्त ने समय से पहले मुझे बहुत कुछ सिखाया है, ज़िंदगी
के साये में जो मैंने 25 वसंत गुजारें हैं उन्हे मैंने बखूबी जिया है.....नए काम
को सीखने कि ललक हमेशा मेरे अंदर रहती है, और यही वो बात है
जो मुझे अपने आप में सबसे अधिक भाती है क्योंकि इसी ललक से मुझे बहुत कुछ मिला
है.... 13 साल कि उम्र मे मेरे अंदर साहित्य और काव्य के प्रति अनुराग जागा और इसे
जानने कि ललक ने मुझे लेखिका और कवियत्री बनाया..... मेरे दादा जी आयुर्वेद के
बहुत अच्छे चिकित्सक थे लेकिन ये मेरा दुर्भाग्य था कि जब तक मैंने जीवन को समझना
सीखा तब-तक वो हमारा साथ छोडकर चले गए.... उनकी बहुत सारी पुस्तकें थी जिन्हे मैं स्कूल के दिनों में छुपकर पढ़ा करती
थी....कोई देख लेता तो डांट पड़ जाती कि ‘ये मेरे किस मतलब की
हैं ’ पर फिर भी मैं उन्हे पढ़ने का मौका निकाल ही लेती
क्योंकि तब-तक आयुर्वेद को जानने की ललक मेरे मन में घर कर गई थी.... और इस ललक ने
मुझे आयुर्वेद के बारे में... अपनी प्राचीन और प्रकृतिक चिकित्सा के बारे मे अच्छी
समझ दी । धीरे-धीरे जब मैं जिंदगी के सफर में मैं आगे बढ़ी तो लोगो को यह कहते हुये सुनने लगी कि हमे जो भी मिलता है
भाग्य से ही मिलता है , अधिक विश्वास नहीं करती थी इन बातों
में क्योंकि मैंने मैथिली शरण गुप्त जी जैसे कवियों कि कवितायें पढ़कर मैंने उन्हे
बखूबी अपने जहन में उतारा हुआ था.......
कुछ काम करो कुछ काम करो
जग में रह के निज नाम करो।
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो!
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो।
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो न निराश करो मन को।
जग में रह के निज नाम करो।
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो!
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो।
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो न निराश करो मन को।
सँभलो कि सुयोग न जाए चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला!
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना।
अखिलेश्वर है अवलम्बन को
नर हो न निराश करो मन को।।
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला!
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना।
अखिलेश्वर है अवलम्बन को
नर हो न निराश करो मन को।।
जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ
फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ!
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो
उठ के अमरत्व विधान करो।
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो न निराश करो मन को।।
फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ!
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो
उठ के अमरत्व विधान करो।
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो न निराश करो मन को।।
निज गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे।
सब जाय अभी पर मान रहे
मरणोत्तर गुंजित गान रहे।
कुछ हो न तजो निज साधन को
नर हो न निराश करो मन को।।
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे।
सब जाय अभी पर मान रहे
मरणोत्तर गुंजित गान रहे।
कुछ हो न तजो निज साधन को
नर हो न निराश करो मन को।।
और निराला जी कि यह अद्भुत
कविता जो मेरी जीवन कि प्रेरणा स्रोत हैं-
लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती ।
नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है,
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है ।
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है,
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है ।
आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती ।
डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है,
जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है ।
मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में,
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में ।
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती ।
असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो,
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो ।
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम,
संघर्ष का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम ।
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती ।
ऐसी कविताओं ने मुझे कर्मवादी
बनाया... फिर भी जब लोगो को किसी को अपना हांथ दिखते या कुंडली दिखाते देखती तो एक
अलग सा कौतूहल उत्पन्न होता इस विधा को जानने का , यह आकर्षण
धीरे-धीरे ज्योतिष सीखने कि तीव्र ललक में बदल गया...मैंने ज्योतिष का अध्ययन आरंभ
किया , मेरी ललक एक बार फिर से विजयी हुई और मुझे ज्योतिष कि
समझ मिली , ज्ञान इसलिए नहीं कहूँगी क्योंकि यह एक बड़ा ही
विस्त्रत विषय है इसमे ज्ञानी होना आसान नहीं है , इसे मैं
आगे भी सीखती रहूँगी क्योंकि इससे लोगो को जल्दी समझने में बहुत मदद मिलती है।
कहने का अभिप्राय यह है कि
कुछ सीखने का जज़्बा और नई चीजों के प्रति आकर्षण बहुत कुछ देता है , हर रोज एक नई सीख मिलती है। कुछ ऐसी ही है मेरे सिविल सेवा के क्षेत्र
में आने कि कहानी....
11वीं कक्षा मे मैंने विलियम
शेक्सपियर का एक पाठ पढ़ा जिसमे अंतिम लाइन थी “जहां चाह है वहाँ राह है” इस एक
वाक्य ने मेरे अंदर क्रांति सी खड़ी कर दी..... क्रांति इसलिए क्योंकि मैंने महीनो
तक इस एक वाक्य को आजमाया... पहले कई छोटी-छोटी बातों को लक्ष्य बनाया और उन्हे पा
लिया तो दिलचस्पी और बढ़ती गयी पर संतुष्टि नहीं मिली , दो महीने बाद हमारे गाँव में पहला कंप्यूटर इंस्टीट्यूट खुला 200 रु मासिक शुल्क और पूरे कोर्स कि फीस थी 4000 रु ।गाँव मे कंप्यूटर
इंस्टीट्यूट खुलते ही मन मे इसे सीखने कि ललक जाग उठी , स्कूल
से घर आते वक्त रास्ते मे ही पड़ता था यह इंस्टीट्यूट... उसके पास से निकलते ही
कंप्यूटर को हांथ से छूने और उसे सीखने कि ललक और बढ़ जाती....कंप्यूटर के बारे
में सोचते-सोचते मैं कब घर पहुँच जाती पता ही नहीं चलता और घर पहुँचते ही सबसे
पहले उसी का बखान करती, आज के समय में कंप्यूटर का क्या
महत्व है यह माँ को समझाने की कोशिश करती, सीधे सीखने के लिए
इसलिए नहीं कह सकती थी क्योंकि जब इंस्टीट्यूट खुलने की खबर आई थी और मैंने भी
सीखने की मनसा जाहिर की थी तो सीधा जवाब मिला था ‘
इंटर्मीडिएट की परीक्षा है ...सीधे पढ़ाई में ध्यान दो, यह सब
तो बाद में भी सीखा जा सकता है ‘उनकी बात भी सच थी पर मैं अपने मन को कैसे
समझाती क्योंकि मन ही मन कचोट इस बात की
थी कि आजतक हर कक्षा में पहला स्थान मैंने प्राप्त किया ,
किसी की मजाल थी जो आगे की सीट पर बैठ जाए और अब-जब मुझसे पहले मेरी ही कक्षा के
कुछ बच्चे कंप्यूटर सीखने जाने लगे तो मेरी पीड़ा और बढ्ने लगी ..... पूरे पाँच दिन
बीत गए कंप्यूटर इंस्टीट्यूट खुले हुये पांचवे दिन मैंने घर मे ऐलान कर दिया कि 10
दिन के अंदर मैं कंप्यूटर क्लास में एडमिशन कराके रहूँगी ,
किसी ने मेरी बात को तवज्जो नहीं दी । मुझे भी नहीं पता था कि यह कैसे होगा …..
उस दिन कि पूरी रात मैंने बिना सोये यह दृढ़ संकल्प करते हुये गुजारी
कि जहां चाह है वहाँ राह है... दूसरे दिन भी वही हाल रहा ,
तीसरे दिन जब स्कूल गयी तो खबर मिली कि वर्ड वाइड कंप्यूटर सेंटर वालों कि तरफ से
एक निबंध प्रतियोगिता रखी जा रही है...जिसमे प्रथम स्थान पर आने वाले को पूरा
कोर्स फ्री कराया जाएगा ....यह बात सुनकर मैं कितनी प्रसन्न थी यह बताने के लिए
मेरे पास शब्द नहीं हैं, मुझे अपनी चाह को पूरी करने कि राह
मिल गयी थी....उस समय मैं दुनिया के सबसे ऊंचे शिखर पर अपने आपको महसूस कर रही
थी....और मन ही मन ज़ोर ज़ोर से चीख रही थी- जहां चाह है वहाँ राह है..... पता नहीं
क्यों मेरे मन में एक बार भी यह नहीं आया कि यह प्रतियोगिता तीन विद्यालयों के बीच
है शायद कोई और छात्र प्रथम स्थान पर आ जाए.... शायद ये मेरा स्वयं के प्रति
विश्वास था जो मुझसे कह रहा था कि मैं ही पहले स्थान पर आऊँगी । पाँच दिन बाद
प्रतियोगिता हुई , फिर चार दिन बाद परिणाम घोषित होना था, इन चार दिनों में बहुत सारी बातें हुई कि किसका नाम आने वाला है ..... पर
मेरा मन चट्टान कि तरह अडिग था ... अंततः मेरे मजबूत हौसले कि जीत हुई ... मुझे
कंप्यूटर कक्षा मे फ्री एडमिशन मिल गया । उस दिन इस बात पर पूरा यकीन कर लिया कि
यह अकाट्य सत्य है कि “जहां चाह है वहाँ राह है “ और यह वाक्य मेरा सबसे सच्चा
साथी हो गया... इंटर्मीडिएट के बाद मेरी पढ़ाई रोक दी गयी क्योंकि उसके आगे गाँव
में कालेज नहीं था पर इस वाक्य ने मेरा बखूबी साथ निभाया... मैंने ग्रेजुएशन किया , फिर वह दिन आया जब मैंने अपनी जिंदगी का बहुत ही महत्वपूर्ण फैसला लिया...
आईएएस कि तैयारी करने का । मेरे इस फैसले में न तो कोई मेरा साथ देने वाला था और न
ही राह दिखने वाला .... एक माँ ही थी जो मन से मेरे साथ थी और वह यही कहती थी की बेटा मैं सिर्फ आशीर्वाद दे सकती हूँ की ईश्वर तुम्हारी हर मनोकामना पूरी करें... साधन कोई नहीं था , पर मैं और मेरा जज़्बा साथ-साथ चलते रहे...कदम से कदम
मिलाकर... रास्ते खुलते गए , मैं तैयारी करने के लिए दिल्ली
आ गयी फिर धीरे-धीरे यहाँ के शिक्षा के माहौल को या फिर कहूँ बाजार को देखकर मन
खिन्न सा होने लगा.... सोचने लगी कि इस बाजारीकरण के चलते जहां छह महीने के लिए एक
विषय पढ़ने के 30-40 हजार रु देने ही है , केवल वही छात्र पढ़
पाएंगे जिनके पास लाखों रु हैं … और जिनके पास नहीं हैं या
फिर ग्रामीण क्षेत्र में जहां पूरी जानकारी उपलब्ध नहीं हो पाती उन लाखों युवाओं
का क्या होगा फिर मेरे मन में ये विश्वास जागा कि मैं अपने साथ-साथ और भी लोगों कि
मदद कर सकती हूँ , तब मैंने एक संस्था बनाकर इस क्षेत्र में
कार्य करने का फैसला किया ... आज मेरी संस्था इस क्षेत्र में कार्यरत है और मैं
बहुत खुश हूँ कि मैं और लोगो के लिए कुछ कर पा रही हूँ । बस उस परमपिता से यही कामना है कि मेरे इरादों
को हमेशा शक्ति मिलती रहे.... और मुझमे कुछ करने की , सीखने
की ललक हमेशा बनी रहे । मैं उन सभी लोगो की दिल से शुक्रगुजार हूँ जो मेरी आलोचना
करते हैं....या फिर जिन्होंने मेरी राह में रोड़ा अटकाया है ....क्योंकि उनका हर
प्रयास मुझे जीवन की एक नयी समस्या से उबरने की कला दे गया........
ye meri jindagi ke kuchh ankahe pal hain.
ReplyDeleteनिश्चय ही ये एक-एक पल आपके लिए कीमती रहे होंगे. इस बात पर तो मेरा भी दृढ विश्वास है की "जहाँ चाह है वहां राह है."
ReplyDeleteआपके द्वारा लिखा गया एक शब्द मुझे बार-बार कोंच रहा था 'हाँथ'.
असल में हिंदी में इसे हाथ लिखा जाता है अर्थात ह के ऊपर बिंदी नहीं होती
मैं आपसे ह्रदय से क्षमा चाहता हूँ, बिने परिचय के किसी के कार्य में बिना पूछे मीन-मेख नहीं निकलना चाहिए किन्तु एक पाठक के तौर पर इस शब्द ने मुझे हर बार परेशान किया जितने बार मुझे आपके दो-तीन लेखों में दिखा.
अपराध क्षमा कीजियेगा अगर आपको उचित लगे तो.
धन्यवाद